भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रात करे शृंगार / प्रेमलता त्रिपाठी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गगन चूमता गिरि शिखर,प्रात करे शृंगार ।
दिशि प्राची मन मोहिनी,कंचन पहने हार ।

मुदित हुआ जनु बाल रवि,कंदुक रहा उछाल,
गगनाँचल से हो रही, खुशियों की बौछार ।

नीली छतरी के तले, जीवन के हर रूप,
भोग व्याधि संघात से,बचा न कोई द्वार ।

भूख,ग़रीबी यातना, रोटी की अरदास,
पड़े दीन असहाय का,धरा-गगन घर बार ।

खपा चलीं हैं पीढियाँ,अपने पन का मंत्र,
आस भरे आकाश का,दाता पालन हार ।

बरखा सावन फागुनी,शीत साँवरी रात,
शून्य; नहीं ये प्रेम नभ,समझो सब विस्तार।