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प्राथमिक शिक्षक-11 / प्रभात

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11.
क्या ?
गंगाराम ने आत्महत्या कर ली ?
सक तो मुझे जभी हो गया था
जब उसने ये कबिता लिखी थी


1
मेरी ईमानदारी, सज्जनता
सच बोलने के साहस की
जरूरत तो खैर थी ही नहीं
लेकिन मुझमें इनके होने भर से
उन्हें परेशानी होने लगी
उन्होंने मुझे काम छोड़कर जाने के लिए
असहाय छोड़ दिया

ऐसा लग रहा है मैं गायब हो रहा हूं अपने ही शरीर में से
कोई और इसमें अपनी जगह बना रहा है
मेरे शरीर में हवा भर रही है
और सुस्ती और नींद और उबासी और उबकाई

मेरा चमड़ा मुटिया रहा है
मैं बेडोल हो रहा हूं
मेरा दिमाग निरर्थकताओं को
सहन कर पाने की क्षमता खोकर
और कुछ भी सार्थक न कर पाकर
एक अजीब से भोज्य पदार्थ में बदल रहा है
आज ये सारे परिवर्तन मुझे मुझमें होते दिख रहे हैं
कल को हो सकता है दिखना बंद हो जाएं
तब मेरे पिता,भाईबंधु, मकान मालिक आगे आएं
और मेरा मानसिक इलाज कराने
किसी सयाने-भोपे के पास ले जाएं


2
ये क्या चीज है जो मेरे सपनों में आती है
और मेरी जान लेना चाहती है
अदृश्य जानवर की तरह
मेरी छाती पर बैठ जाती है
और मुझे इस तरह से दबाती है
जैसे हत्यारे लोग
अंधेरे में स्त्रियों का गला दबा देते हैं तकिए से


3
बच्चों से खाली हो चुके हैं स्कूल के गलियारे
राहगीरों से खाली हो चुके हैं तमाम रास्ते
किसानों से खाली हो चुके हैं खेत
भेड़ बकरियों से खाली हो चुके हैं पहाड़
गाय भैंसों से खाली हो चुके हैं चरागाह
सूरज से खाली हो चुकी है आधी धरती


4
जीवन की अनिश्चित यात्रा में
तुम हो राह में मिले पेड़
पोखर हरे मैदान
और सुगम पगडण्डी की तरह
तुम हो वह सब जो पीछे छूट गया है

वक्त जरूरत तुमसे मिलना
आगे पता नहीं
होगा भी कि नहीं
और यात्रा भी अब यह
कितनी बाकी रही
कुछ निश्चित नहीं

बेहतर हो कि यह
समय रहते पूरी हो जाए
राह के दोनों ओर जगह-जगह
दिखाई पड़ते हैं ऐसे राहगीर भी
जिनके तन पर तार नहीं
पात्र में अन्न नहीं जल नहीं
खड़े रहने में अक्षम इन राहगीरों को देखता हूं
अभी चलना है कई-कई बरस

राह के पेड़
पोखर हरे मैदान
पगडण्डी
सब इनके लिए
हो चुके हैं अर्थहीन

गल चुकी है त्वचा
मगर शेष है यात्रा