प्राप्त्याशा / दिनेश्वर प्रसाद
हज़ार आँखें
तब भी मुझे देखती थीं
हज़ार आँखें
अब भी।
ज्योतिषी जी कहते हैं — आप फिर मन्त्री होंगे।
तो क्या फिर
मिसेज़ रमोला के दक्ष हाथ
मेरे बालों में फिरेंगे, और मेरे सीने में
बिजलियाँ बोते उसके कस्तूरी केश
मेरे कन्धों को छुएँगे ?
तो क्या फिर
मिस सिम्पसन की आँखें
शैम्पेन की प्यालियों में अँकित हो
मेरे कण्ठ में ढलेंगी ?
कुमारी सुखवीर के तिकोने, भरे चेहरे पर
भोली, हिरणी-सी आँखें अचानक तिर कर
क्षमाप्रार्थी हो जाएँगी, लेकिन
उसकी चीख़ें मुझसे कहेंगी —
नहीं सर, नहीं सर, बहुत सुख ।
लगता है, मैं अचानक
बूढ़ा हो गया हूँ ।
मेरे सिर से बाल अचानक सफ़ेद ।
नहीं तो, नहीं तो अप्सराओं द्वारा दिलाए गए
अपने ऐन्द्र यौवन के
विश्वास पर
अविश्वास करने की फ़ुर्सत ही कहाँ थी ?
वे कहते हैं — तुमने ग़लतियाँ की हैं;
तुमने
पवित्र आदर्शों की बलि दी है
यहाँ कौन है
जो गान्धी है ?
कौन है
जिसके हाथों ने बटोरा नहीं, जिसके पाँवों ने कुचला नहीं ?
सफ़ेद टोपियों के नीचे सबों का सिर गँजा है ।
सफ़ेद कपड़ों के भीतर सबों की देह सड़ी ।
सबों के चेहरे तह किए हुए ।
सबों के माथे पर ख़ून का टीका ।
ऐसे में ही श्रीकुमार
महामहिम श्री नाथ जननाथ ।
मैं ही क्यों दोषी हूँ ?
वे कहते हैं — ठीक है । नए लोगों को आने दो ।
जनता की सेवा करो ।
दल की बढ़ती फूट को रोको ।
जनसेवा करता हूँ । उपदेश मत दो ।
शहादत जानता हूँ ।
पहले मेरा स्मारक बना दो
तब शहीद होऊँगा ।
मैं कोई आरुणि नहीं
जो कगार पर पहुँचे वेग की मेड़ बनूँ ।
आख़िर, हर आदमी
उदरमुख होता है ।
एक बार और मैं
नई दिल्ली जाऊँगा
और प्रधानमन्त्री से कहूँगा —
पुराना जनसेवक हूँ, सैंतालीस का सदस्य नहीं ।
पुट्ठे पर लाठियों के आज भी निशान हैं ।
हाँ, इसे दृढ़ता से कहना है, कण्ठावरोध रहित
और अपना प्राप्य फिर पाना है ।
मैं पेड़ का पानी ही नहीं, काठ का घुन भी हूँ ।
गान्धी-युग की आग
अभी मुझ में शेष है। अब भी मैं
विद्रोह कर सकता। चमचमाती कारों,
वातानुकूलित महलों,
काग़ज़ी फ़सलों और स्वागत मालाओं की सरकार को
अब भी उलट सकता हूँ।
पुराना जनसेवक हूँ । हज़ार आँखें
अब भी मुझे देखती हैं ।
लेकिन ज्योतिषी जी कहते हैं — ‘आप फिर मन्त्री होंगे।‘
तो क्या मेरा खोया हुआ स्वर्ग
मुझे मिल जाएगा ?
क्या फिर प्रणाम, प्रणिपात,
मालाएँ, तालियाँ, सलामियाँ
मुझको मिलेंगी ?
तो फिर
सुन्दरियो ! मेरी भावी रातों की अनाम रानियो !
प्रतीक्षा करो । मैं तुम्हें फिर
प्लेट पर सेब के टुकड़ों-सा चखूँगा । तुम्हारी
मुस्कान का मक्खन अपने टोस्ट पर लगाऊँगा ।
तुम्हारे तप्त-वाष्पित चुम्बनों की कॉफ़ी पियूँगा ।
इसी तरह, इसी तरह
हाथ में ग्लास लेकर
तुम्हारी हेल्थ...
लेकिन आह ! लेकिन आह !!
1964