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प्राप्य से परे अप्राप्य की ओर... / केदारनाथ अग्रवाल
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प्राप्य से परे अप्राप्य की ओर
- चला जा रहा है मनुष्य
समाधि में नहीं--
- अजान के ज्ञान में समाने
संजीवन स्तरों को पाने
भले ही मनुष्य हो मनुष्य का घातक
राष्ट्र ही राष्ट्र के अनिष्ट का संस्थापक
- और भूमि हो स्वयं से भयभीत
चाहे सर्वत्र प्रसारित हो
अनरीत