मैं रिक्शे में
रास्ते में
ज़मीन पर
टूटा-पड़ा-एक पेड़ ।
पेड़ कटवाने वाला अफ़सर
कामोन्माद की आह भर रहा
सिग्नल हरी झण्डी दे रहा
सड़क सीना चौड़ा किए खड़ी
गाड़ियाँ सीटी बजा रही
नौकरी में डूबा सोमवार का सवेरा
एक मिनट व्यर्थ नहीं कर रहा ।
इलैक्ट्रोनिक मीटर का मैकेनिकल रिक्शेवाला
मीटर सी ही चोर-गति से भाग रहा ।
मैं,
रिक्शे को रोक नहीं पाई
पेड़ को अस्पताल ले जा नहीं पाई ।
उसे मारने,
मरते पर हंसने वालों को
पकड़ नहीं पाई ।
आख़िरी वक़्त में उसे ये नहीं कह पाई
कि वो अकेला नहीं है — मैं हूँ ।
मैं उसके सामूहिक उपहास का हिस्सा हूँ
घर आकर मैंने एक कविता लिख दी ।
— इतना सरल प्रायश्चित ?