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प्रार्थना / अज्ञेय

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 इस विकास-गति के आगे है कोई दुर्दम शक्ति कहीं,
जो जग की स्रष्टा है, मुझ को तो ऐसा विश्वास नहीं।
फिर भी यदि कोई है जिस में सुनने की सहृदयता है;
और साथ ही पूरा करने की कठोर तन्मयता है;

तो मैं आज बिना छोड़े अपनी सक्षमता का अभिमान;
कलाकार से कलाकारवत्, उस से यह माँगूँगा दान :
'गुरु! मैं तुझ से सीखूँ, पर अक्षुण्ण रखूँ अपना विश्वास,
बुझ कर नहीं, दीप्त रह कर ही मैं आ पाऊँ तेरे पास!

'किये चलूँ जो बने, और यदि सफल कभी भी हो पाऊँ-
मार्ग रोकनेवाले यश-स्तम्भों को कभी न ललचाऊँ।
'चिर-जीवन कैसे पाऊँगा, इस डर से मैं नहीं डरूँ-
अपने ही निर्मम हाथों मैं अपना स्मारक ध्वस्त करूँ!'

लाहौर, 23 दिसम्बर, 1935