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प्रार्थना / विजय कुमार देव

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आओ मेरे प्रिय शब्दों
मै प्रार्थना करता हूँ
अपने दुःख भरे दिनों में
ठण्डेपन के साथ

आना तुम शाम को
थककर जिन्दगी से टूटने पर
मैं फिर उलझ जाऊँगा
तुम्हारे मोहपाश में

मेरे मिश्रीमय शब्दों
आना तुम शाम पाँच-सितारा होटल से उतरकर
मेरी टाट झुपड़िया में--
मै तब भी नहीं समझूंगा
तुम्हारा ठीक-ठीक अर्थ

मेरे प्रिय शब्दों
मै कैद कर लूँगा अपने कंठ में
फैला लूँगा पेन भर स्याही में
मै फिर गढ़ूंगा तुम्हें
अपने तई अक्षर-अक्षर
मै फिर उच्चारूँगा तुम्हे
मंत्रमय करके
दसों दिशाओं में टाँक दूँगा
लौटाऊँगा तुम्हारी खोई हुई सत्ता