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प्रिय! अब जाने की करो नहीं हठ / कविता भट्ट

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प्रिय ! हम स्वप्न-पाश में आलिंगनरत
अधर धरे अधरों पर, प्रेम-प्रतिध्वनित
 बस कुछ ही शेष है जीवन घट-घट
टपकती बूँदें, सिसकती साँसें सिमट
असीम संघर्ष मेरी घुँघराली लट-लट
कुछ समय हो, दो प्रिय इन्हें सुलट
कम्पित कलियाँ, नीरवता का जमघट
इन्हें खिला दो प्रिय पुनः दृष्टि पलट
पलकें खुलना ही ना चाहे मदिरा-घट
अब मुँद जाएँ, तुमसे ये नयना लिपट
 दोनों नयना उलझाए गंगा के तट
 प्रिय ! अब जाने की करो नहीं हठ! 