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प्रिय! आ चलें इक साइकिल पर... / कविता भट्ट

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केवल तू है और एक मैं
मीलों दूर तक इस अंबर में
प्रिय! आ चलें
इक साइकिल पर...

यह एक सड़क जाती है
रंग - बिरंगे पहाड़ी फूलों से
लदे हुए किनारे सुंदर
सुरभित है यह प्रेमलोक
कल्पलोक आनंद लोक
आ चलें इक साइकिल पर
पहाड़ी बलखाती पगडंडी पर
तेज पैडल मार जरा, आगे मुझे बिठाकर
मैं सकुचाती - मुस्काती - इठलाती
तेरी बाँहो की परिधि में
तेरी ठुड्ढी मेरे काँधे पर
कुछ चुम्बन मेरी गर्दन पर
रोमांचित तन- आनंदित मन
फिर झटके से साइकिल रोककर
पहाड़ी फूलों की डाली के आगे
मेरी लहराती केशराशि में
फूल लगा दे कुछ चुनकर
आ सुन तो- अब खो जा
सुरभित उड़ती केशराशि में
मुझे उतार, तू भी उतर जा
डाली फूलों वाली हिलाकर
कुछ फूल बरसा झर -झर
हम दोनों पर पुष्पित निर्झर
आजा अब आलिंगन कर
तन - मन के झंकृत हों स्वर
प्रिय! आ चलें
इक साइकिल पर...
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