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प्रिय! झुका कदम्ब-विटप-शाखा तुम स्थित थे कालिन्दी-तट पर / प्रेम नारायण 'पंकिल'
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प्रिय! झुका कदम्ब-विटप-शाखा तुम स्थित थे कालिन्दी-तट पर।
विह्वल सुनते थे लहरों का स्नेहिल कल-कल-कल छल-छल स्वर।
टप-टप झरते थे सलिल-बिन्दु थे सरसिज-नयन खुले आधा ।
भावाभिभोर हो विलख-विलख कह उठते थे राधा-राधा ।
थी मुदित प्रकृति, उत्सवरत थी नीचे वसुन्धरा,ऊपर नभ ।
खोये थे जाने कहाँ, पास ही थी मैं खड़ी प्राणवल्लभ !
उद्गार तुम्हारा सुन लिपटी बावरिया बरसाने वाली -
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥49॥