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प्रियतम! तव रूप-सुधा-रस-माधुरि प्यारी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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प्रियतम! तव रूप-सुधा-रस-माधुरि प्यारी।
मो दृग सौं छिनहू नायँ टरति है टारी॥-टेक॥
नव-जलद-नील तनु स्याम नयन-मन-मोहन।
मुख सरद-‌इंदु-सम पूर्ण प्रभामय सोहन॥
बनमाला गल अति सुरभित नित मन मोहै।
सिखि-पिच्छ-सुसोभित अलकनि की छबि सोहै॥
बाँकी भौंहैं, तिरछी चितवन अनियारी॥-मो दृग०॥
हौं कुमुदिनि तव मुख-चंद्र बिना नहिं विकसति।
हौं चारु चकोरी नित दरसन-हित तरसति॥
बस, मिलौ तुरत तुम, करौ न पलभर देरी।
मैं हौं अनन्य तव चरन-जुगल की चेरी॥
तुम बिनु नहिं छिन भर चैन, बिथा हिय भारी॥-मो दृग०॥
मन ऐसी आवै, नित्य रहौं तुम सौं जुत।
छिनहू नहिं तुम कूँ जान दन्नँ मैं इत-‌उत॥
राखूँ उर-मंदिर बाँधि प्रेम की डोरी।
खेलूँ प्रिय! तुम सँग सदा रंग-रस-होरी॥
तुम बनौ नित्य मम हृदय-सरोज-विहारी॥-मो दृग०॥
तुम बने रहो हरि! हार गलेका सोभन।
नित प्रेम-रसास्वादनका बढ़ै प्रलोभन॥
तुम-हम, बस, दो ही रहैं, न को‌ई दूजा।
मैं करती रहूँ प्रान-धन नित रस-पूजा॥
त्रुटिभर न तुम्हें मैं बिलग करूँ हियहारी॥-मो दृग०॥
मम मुख-पंकजके मधुकर मधुर पि‌आरे।
तुम प्रान-प्रान, मेरे नैनों के तारे॥
छूटै अग-जग की सुरति देखि तव मूरति।
मुक्तीग न पाय मो कूँ नित रहै बिसूरति॥
तुम में मैं घुल-मिल जान्नँ, रहूँ न न्यारी॥-मो दृग०॥