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प्रियतम! देखो / अज्ञेय
Kavita Kosh से
प्रियतम! देखो, नदी समुद्र से मिलने के लिए किस सुदूर पर्वत के आश्रय से, किन उच्चतम पर्वत-शृंगों को ठुकरा कर, किस पथ पर भटकती हुई, दौड़ी हुई आयी है!
समुद्र से मिल जाने के पहले उसने अपनी चिर-संचित स्मृतियाँ, अपने अलंकार-आभूषण, अपना सर्वस्व, अलग करके एक ओर रख दिया है, जहाँ वह एक परित्यक्त केंचुल-सा मलिन पड़ा हुआ है।
और, प्रियतम! इतना ही नहीं, वह देखो नदी ने यद्यपि कुछ दूर तक समुद्र को रँग दिया है अवश्य, तथापि अपने मिलन में उस ने अपना स्वभाव भी उत्सर्ग कर दिया है, वह अपने प्रणयी के साथ लवण और अग्राह्य हो गयी है!
प्रियतम! देखो...
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