(तर्ज लावनी-ताल कहरवा)
प्रियतम! भरते रहो नित्य तुम मुझमें अपना मीठा सुर।
कभी नहीं बज उठे मोह-ममताका तिक्त बेसुरा सुर॥
प्रियतम! भरते रहो सदा जीवनमें अपना दिव्य प्रकाश।
कभी नहीं कर पाये उसमें भोग-तिमिर-घन तनिक निवास॥
प्रियतम! देते रहो नित्य मुझको तुम अपना पावन प्रेम।
जिससे निभे नहीं क्षण वैरी काम अन्धका योग-क्षेम॥
प्रियतम! भरते रहो सदा मुझमें पद-पंकज-सेवा-भाव।
जिससे बढ़ता रहे निरन्तर सेवाका अनन्य शुचि चाव॥
प्रियतम! दे दो दुर्लभ निज चरणोंका ही, बस मुझे ममत्व।
जिससे जगमें रहें न राग-द्वेष कहीं, हो जाय समत्व॥
प्रियतम! ले लो मुझे सदाके लिये दानकर निज दासत्व।
पड़ा रहूँ चरणोंमें मैं, पा जान्नँ पद-रज-कणपर स्वत्व॥