भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रियतम बिन जीऊँ कैसे / तारा सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं जिस प्रियतम को अपनी पलकों पर
बिठाकर रखती आई, सयत्न
आज आयेंगे वो, इसमें जरा भी नहीं वहम
तन कुसुम विकसित होने लगा है
लगता है, आ रहा हो बसंत
प्रियतम बिना यह मेरा कोमल तन
कितना – कितना सहा है ताप
कितना – कितना किया उपवास
इसे जानता है, अंतर्यामी
और जानती हूँ, मैं आप
मुझ पर निर्लज्जता का मत लगाओ कलंक
बल्कि विरह सिंधु को पकड़ जीऊँ कैसे
बतला दो जीने का ऐसा कोई ढ़ंग
मैं कैसे भूल जाऊँ, उस प्रियतम को
जो अब बन गया है, मेरे तन का अंग
इस अबोध प्राण को बतलाओ
प्रियतम बिन जीवित रखूँ कैसे
आँधी, वर्षा, ताप, तुषार - पात
यौवन धन का अमूल्य उपहार
प्रियतम बिना संभालू कैसे
चंद्रमा की मधुर ज्योत्सना में घुलकर ही
रजनी होती है इतनी रहस्यमयी
खीचकर रसातल से रस को, पेड़–पौधे रहते हरे
मैं अपने चाँद- निधि को पाने
कब तक यूँ बैठकर रहूँ, रोती