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प्रियतम वसन्त आया / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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सुनो काग !
आज मैं तुम्हारे सामने
खड़ी हूँ निराश
आशा में
वसन्त भी तो आ गया
मैं अपने प्रियतम को
खोजती रही रोती हुई
पहले की तरह ही
जैसे कोयल और पपीहा
न जाने कितने युगों से
अपने खोये मीत को
खोजते फिर रहे हैं

ग्यारह मासों तक
तुम निरर्थक ही गगलते रहे
न जाने क्या क्या बोलते रहे

और आज फिर तुम
छपरी से लेकर अगरी तक
ढहती दीवाल और आँगन में
उड़-उड़ कर बैठता है
कैसा संदेश उचारता है
क्या कहता है ?

क्या सज-संवर कर
यह जो वसन्त आया है
आम्र मंजरी का मोर पहने