भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रिया से / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे इस जीवन की है तू सरस साधना कविता,
मेरे तरु की है तू कुसुमित प्रिये कल्पना-ज्ञतिका;
मधुमय मेरे जीवन की प्रिय है तू कमल-कामिनी,
मेरे कुंज-कुटीर-द्वार की कोमल-चरणगामिनी,
नूपुर मधुर बज रहे तेरे,
सब श्रृंगार सज रहे तेरे,

अलक-सुगन्ध मन्द मलयानिल धीरे-धीरे ढोती,
पथश्रान्त तू सुप्त कान्त की स्मॄति में चलकर सोती
कितने वर्णों में, कितने चरणों में तू उठ खड़ी हुई,
कितने बन्दों में, कितने छन्दों में तेरी लड़ी गई,
कितने ग्रन्थों में, कितने पन्थों में, देखा, पढ़ी गई,
तेरी अनुपम गाथा,
मैंने बन में अपने मन में
जिसे कभी गाया था।

मेरे कवि ने देखे तेरे स्वप्न सदा अविकार,
नहीं जानती क्यों तू इतना करती मुझको प्यार!
तेरे सहज रूप से रँग कर,
झरे गान के मेरे निर्झर,
भरे अखिल सर,
स्वर से मेरे सिक्त हुआ संसार!