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प्रिये! तुम्हारी वाणी सुनने को / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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प्रिये! तुम्हारी वाणी सुनने को जी हरदम ललचाता।
तुम्हें बोलने को उकसाने, सुनी अनसुनी कर जाता॥
जब मैं नहीं बोलता कुछ, तब तुम उोजित हो जाती।
प्रणय-कोप में हरदम मुझको युक्त-‌अयुक्त सुना जाती॥
तब मुझको होता प्रमोद अति, भर उठता मन में उल्लास।
विनय-विनम्र मनाने लगता, करने लगता हास-विलास॥
तब तुम प्रेम-सुधा-रस-पूरित अतिशय मधुर सुनाती बैन।
जिन्हें न सुन पाता पलभर तो हो उठता बिल्कुल बेचैन॥