भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रिये तुम्हारा आना जाना / सुरजीत मान जलईया सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रिये तुम्हारा आना जाना
क्यों नहीं होता गाँव में

रात रातभर छत पर बैठा
स्वपन उधेडा करता हूँ
चाँद बुलाकर अपने आँगन
रोज बखेडा करता हूँ
मुझसे मिलने कब आओगी
तुम चन्दां की छांव में
प्रिये तुम्हारा आना जाना
क्यों नहीं होता गाँव में

लिखकर कितनी रोज चिठ्ठियाँ
तेरी सखियों से भेजीं
हमने कितनी बार अर्जियाँ
तुझको परियों से भेजी
तू ने कोई खत भेजा ना
आज तलक क्यों गाँव में
प्रिये तुम्हारा आना जाना
क्यों नहीं होता गाँव में

खेतों पर मुझसे मिलने की
चाहत लेकर आ जाना
अपने कदमों तले जरा सी
राहत ले कर आ जाना
पहरों साथ रहे हम दोनों
जिस पीपल की छाँव में
प्रिये तुम्हारा आना जाना
क्यों नहीं होता गाँव में