भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रिय के हाथ लगाये जागी, / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
Kavita Kosh से
प्रिय के हाथ लगाये जागी,
ऐसी मैं सो गई अभागी।
हरसिंगार के फूल झर गये,
कनक रश्मि से द्वार भर गये,
चिड़ियों के कल कण्ठ मर गये,
भस्म रमाकर चला विरागी।
शिशु गण अपने पाठ हुए रत,
गृही निपुण गृह के कर्मों नत,
गृहिणी स्नान-ध्यान को उद्यत,
भिक्षुक ने घर भिक्षा माँगी।