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प्रिय जब तुम पास थे! / कविता भट्ट

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आँचल फैलाए, निःशब्द-मूक पड़े थे,
दो बूँदों की आशा में, अधखुले नैन-स्वप्नाकाश थे!
रुक्ष-धरा को नीर भरे घन बरसने के विश्वास थे।
प्रिय जब तुम पास थे।

कामनाओं के झरते निर्झर,
धरा के घर्षण करते झर-झर।
कुछ तृप्ति तो कुछ मृगतृष्णा जैसे ये आभास थे।
प्रिय जब तुम पास थे।

तप्त अधर ,स्पर्श को व्याकुल,
किन्तु नैनों में कुछ संकोच-चपल!
हृदय-ध्वनि सकुचाई, किन्तु साहसी-प्रेम के उच्छ्वास थे।
प्रिय जब तुम पास थे।

उन्मुक्त हँसी की स्वर्णशृंखलाएँ,
गूँथ रहीं थीं मन में नव-अभिलाषाएँ
प्रतिध्वनित हो चले स्वर-लहरियों के पल अनायास थे।
प्रिय जब तुम पास थे।

अविस्मरणीय, अकल्पित, अद्भुत!
प्रेम चरम शिखर आरूढ़ होने को उन्मुख।
विगत विछोह- विदा, दुःख-विस्मरण के आभास थे।
प्रिय जब तुम पास थे।

रुदन प्रारम्भ में और रुदन अंत में
मिलन सुखद किन्तु नीर-जल दुःखद अंत में।
एक ओर संयोग, किन्तु कहीं विरह के भी तीक्ष्ण त्रास थे।
प्रिय जब तुम पास थे।

क्या होगा कभी पुनर्मिलन
अब नित्यप्रति है यही प्रश्न
निरुत्तर तुम्हारे-मेरे अधरों के उसी दिन से प्रयास थे।
प्रिय जब तुम पास थे।