प्रिय न जाओ / मानोशी
स्वार्थ मेरा रोकता है, प्रेम कहता प्रिय न जाओ,
चाहती हूँ कह सकूँ पर कहूँ कैसे, प्रिय न जाओ...
सिर्फ़ मेरे कब हुये तुम, मन तुम्हें कब बाँध पाया,
विरह-पीड़ा हदय की पाषाण मन कब जान पाया,
स्वयं को मैं रोक भी लूँ अश्रु थमते ही नहीं हैं
शूल जिसको बींधता है वही उसको जान पाया,
बस तुम्हें कर्तव्य प्रिय, मैं कुछ नहीं? हे प्रिय न जाओ...
जगत के जो नियम हैं वह मानना है, मानती हूँ,
राह आगे की कठिन है सत्य यह भी जानती हूँ,
प्रेम पर विश्वास है पर धैर्य मेरा छूटता है,
तुम भले योगी मगर मै संग-सुख अनुमानती हूं,
है तुम्हीं से जगत तुम संसार मेरे, प्रिय न जाओ...
प्रेम तो अनुभूति है अभिव्यक्ति में है छल समाया,
प्रेम होता आत्मा से, दो दिवस की मर्त्य काया,
दूर होने से भला क्या प्रेम भी घटता कहीं है?
यह सभी मैं जानती हूँ पर कहाँ मन मान पाया,
एक ही जीवन मिला है संग तुम्हारे, प्रिय न जाओ...