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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - १

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मन्दाक्रान्ता छन्द

यात्रा पूरी स-दुख करके गोप जो गेह आये।
सारी-बातें प्रकट ब्रज में कष्ट से कीं उन्होंने।
जो आने की विवि दिवस में बात थी खोजियों ने,
धीरे-धीरे सकल उसका भेद भी जान पाया॥1॥

आती बेला वदन सबने नन्द का था विलोका।
ऑंखों में भी सतत उसकी म्लानता घूमती थी।
सारी-बातें श्रवणगत थीं हो चुकीं आगतों से।
कैसे कोई न फिर असली बात को जान जाता॥2॥

दोनों प्यारे न अब ब्रज में आ सकेंगे कभी भी।
ऑंखें होंगी न अब सफला देख के कान्ति प्यारी।
कानों में भी न अब मुरली की सु-तानें पड़ेंगी।
प्राय: चर्चा प्रति सदन में आज होती यही थी॥3॥

गो गोपी के सकल ब्रज के श्याम थे प्राणप्यारे।
प्यारी आशा सकल पुर की लग्न भी थी उन्हीं में।
चावों से था वदन उनका देखता ग्राम सारा।
क्यों हो जाता न उर-शतधा आज खोके उन्हीं को॥4॥

बैठे नाना जगह कहते लोग थे वृत्त नाना।
आवेगों का सकल पुर में स्रोत था वृध्दि पाता।
देखो कैसे करुण-स्वर से एक आभीर बैठा।
लोगों को है सकल अपनी वेदनायें सुनाता॥5॥

द्रुतविलम्बित छन्द

जब हुआ ब्रजजीवन-जन्म था।
ब्रज प्रफुल्लित था कितना हुआ।
उमगती कितनी कृति-मूर्ति थीं।
पुलकते कितने नृप नंद थे॥6॥

विपुल सुन्दर-बन्दनवार से।
सकल द्वार बने अभिराम थे।
विहँसते ब्रज-सद्म-समूह के।
वदन में दसनावलि थी लसी॥7॥

नव रसाल-सुपल्लव के बने।
अजिर में वर-तोरण थे बँधे।
विपुल-जीह विभूषित था हुआ।
वह मनो रस-लेहन के लिए॥8॥

गृह गली मग मंदिर चौरहों।
तरुवरों पर थी लसती ध्वजा।
समुद सूचित थी करती मनो।
वह कथा ब्रज की सुरलोक को॥9॥

विपणि हो वर-वस्तु विभूषिता।
मणि मयी अलका सम थी लसी।
पर-वितान विमंडित ग्राम की।
सु-छवि थी अमरावति-रंजिनी॥10॥

सजल कुंभ सुशोभित द्वार थे।
सुमन-संकुल थीं सब वीथियाँ।
अति-सु-चर्चित थे सब चौरहे।
रस प्रवाहित सा सब ठौर था॥11॥

सकल गोधन सज्जित था हुआ।
वसन भूषण औ शिखिपुच्छ से।
विविध-भाँति अलंकृत थी हुई।
विपुल-ग्वाल मनोरम मण्डली॥12॥

'मधुर मंजुल मंगल गान की।
मच गई ब्रज में बहु धूम थी।
सरस औ अति ही मधुसिक्त थी।
पुलकिता नवला कलकंठता॥13॥

सदन उत्सव की कमनीयता।
विपुलता बहु याचक-वृन्द की।
प्रचुरता धन रत्न प्रदान की।
अति मनोरम औ रमणीय थी॥14॥

विविध भूषण वस्त्र विभूषिता।
बहु विनोदित ग्राम-वधूटियाँ।
विहँसती, नृप गेह-पधारती।
सुखद थीं कितना जनवृन्द को॥15॥

ध्वनित भूषण की मधु मानता।
अति अलौकिकता कलतान की।
'मधुर वादन वाद्य समूह का।
हृदय के कितना अनुकूल था॥16॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

या मैंने था दिवस अति-ही-दिव्य ऐसा विलोका।
या ऑंखों से मलिन इतना देखता वार मैं हूँ।
जो ऐसा ही दिवस मुझको अन्त में था दिखाना।
तो क्यों तूने निठुर विधना! वार वैसा दिखाया॥17॥

हा! क्यों देखा मुदित उतना नन्द-नन्दांगना को।
जो दोनों को दुखित इतना आज मैं देखता हूँ।
वैसा फूला सुखित ब्रज क्यों म्लान है नित्य होता।
हा! क्यों ऐसी दुखमय दशा देखने को बचा मैं॥18॥

या देखा था अनुपम सजे द्वार औ प्रांगणों को।
आवासों को विपणि सबको मार्ग को मंदिरों को।
या रोते से विषम जड़ता मग्न से आज ए हैं।
देखा जाता अटल जिनमें राज्य मालिन्य का है॥19॥

मैंने हो हो सुखित जिनको सज्जिता था बिलोका।
क्यों वे गायें अहह! दुख के सिंधु में मज्जिता हैं।
जो ग्वाले थे मुदित अति ही मग्न आमोद में हो।
हा! आहों से मथित अब मैं क्यों उन्हें देखता हूँ॥20॥