प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ - ५
भयंकरी-प्रज्वलिताग्नि की शिखा।
दिवांधाता-कारिणि राशि धूम की।
वनस्थली में बहु-दूर-व्याप्त थी।
नितान्त घोरा ध्वनि त्रास-वर्ध्दिनी॥81॥
यहीं विलोका करुणा-निकेत ने।
गवादि के साथ स्व-बन्धु-वर्ग को।
शिखाग्नि द्वारा जिनकी शनै: शनै:।
विनष्ट संज्ञा अधिकांश थी हुई॥82॥
निरर्थ चेष्टा करते विलोक के।
उन्हें स्व-रक्षार्थ दवाग्नि गर्भ से।
दया बड़ी ही ब्रज-देव को हुई।
विशेषत: देख उन्हें अशक्त-सा॥83॥
अत: सबों से यह श्याम ने कहा।
स्व-जाति-उध्दार महान-धर्म में।
चलो करें पावक में प्रवेश औ।
स-धेनू लेवें निज-जाति को बचा॥84॥
विपत्ति से रक्षण सर्व-भूत का।
सहाय होना अ-सहाय जीव का।
उबारना संकट से स्व-जाति का।
मनुष्य का सर्व-प्रधान धर्म है॥85॥
बिना न त्यागे ममता स्व-प्राण की।
बिना न जोखों ज्वलदग्नि में पड़े।
न हो सका विश्व-महान-कार्य्य है।
न सिध्द होता भव-जन्म हेतु है॥86॥
बढ़ो करो वीर स्व-जाति का भला।
अपार दोनों विधा लाभ है हमें।
किया स्व-कर्तव्य उबार जो लिया।
सु-कीर्ति पाई यदि भस्म हो गये॥87॥
शिखाग्नि से वे सब ओर हैं घिरे।
बचा हुआ एक दुरूह-पंथ है।
परन्तु होगी यदि स्वल्प-देर तो।
अगम्य होगा वह शेष-पंथ भी॥88॥
अत: न है और विलम्ब में भला।
प्रवृत्त हो शीघ्र स्व-कार्य में लगो।
स-धेनू के जो न इन्हें बचा सके।
बनी रहेगी अपकीर्ति तो सदा॥89॥
ब्रजेन्दु ने यद्यपि तीव्र-शब्द में।
किया समुत्तोजित गोप-वृन्द को।
तथापि साथी उनके स्व-कार्य में।
न हो सके लग्न यथार्थ-रीति से॥90॥
निदाघ के भीषण उग्र-ताप से।
स्व-धर्य्य थे वे अधिकांश खो चुके।
रहे-सहे साहस को दवाग्नि ने।
किया समुन्मूलन सर्व-भाँति था॥91॥
असह्य होती उनको अतीव थी।
कराल-ज्वाला तन-दग्ध-कारिणी।
विपत्ति से संकुल उक्त-पंथ भी।
उन्हें बनाता भय-भीत भूरिश:॥92॥
अत: हुए लोग नितान्त भ्रान्त थे।
विलोप होती सुधि थी शनै: शनै:।
ब्रजांगना-वल्लभ के निदेश से।
स-चेष्ट होते भर वे क्षणेक थे॥93॥
स्व-साथियों की यह देख दुर्दशा।
प्रचंड-दावानल में प्रवीर से।
स्वयं धाँसे श्याम दुरन्त-वेग से।
चमत्कृता सी वन-भूमि को बना॥94॥
प्रवेश के बाद स-वेग ही कढ़े।
समस्त-गोपालक-धेनू संग वे।
अलौकिक-स्फूर्ति दिखा त्रि-लोक को।
वसुंधरा में कल-कीर्ति वेलि बो॥95॥
बचा सबों को बलवीर ज्यों कढ़े।
प्रचंड-ज्वाला-मय-पंथ त्यों हुआ।
विलोकते ही यह काण्ड श्याम को।
सभी लगे आदर दे सराहने॥96॥
अभागिनी है ब्रज की वसुन्धरा।
बड़े-अभागे हम गोप लोग हैं।
हरा गया कौस्तुभ जो ब्रजेश का।
छिना करों से ब्रज-भूमि रत्न जो॥97॥
न वित्ता होता धन रत्न डूबता।
असंख्य गो-वंश-स-भूमि छूटता।
समस्त जाता तब भी न शोक था।
सरोज सा आनन जो विलोकता॥98॥
अतीव-उत्कण्ठित सर्व-काल हूँ।
विलोकने को यक-बार और भी।
मनोज्ञ-वृन्दावन-व्योम-अंक में।
उगे हुए आनन-कृष्णचन्द्र को॥99॥