भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ - ३

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विगह औ विटपी – कुल मौनता।
प्रकट थी करती इस मर्म को।
श्रवण को वह नीरव थे बने।
करुण अंतिम – वादन वेणु का॥४१॥
विहग – नीरवता – उपरांत ही।
रुक गया स्वर शृंग विषाण का।
कल – अलाप समापित हो गया।
पर रही बजती वर – वंशिका॥४२॥
विविध - मर्म्मभरी करुणामयी।
ध्वनि वियोग - विराग - विवोधिनी।
कुछ घड़ी रह व्याप्त दिगंत में।
फिर समीरण में वह भी मिली॥४३॥
ब्रज – धरा – जन जीवन - यंत्रिका।
विटप – वेलि – विनोदित-कारिणी।
मुरलिका जन – मानस-मोहिनी।
अहह नीरवता निहिता हुई॥४४॥
प्रथम ही तम की करतूत से।
छवि न लोचन थे अवलोकते।
अब निनाद रुके कल – वेणु का।
श्रवण पान न था करता सुधा॥४५॥
इसलिए रसना - जन - वृंद की।
सरस - भाव समुत्सुकता पगी।
ग्रथन गौरव से करने लगी।
ब्रज-विभूषण की गुण-मालिका॥४६॥
जब दशा यह थी जन – यूथ की।
जलज – लोचन थे तब जा रहे।
सहित गोगण गोप - समूह के।
अवनि – गौरव – गोकुल ग्राम में॥४७॥
कुछ घड़ी यह कांत क्रिया हुई।
फिर हुआ इसका अवसान भी।
प्रथम थी बहु धूम मची जहाँ।
अब वहाँ बढ़ता सुनसान था॥४८॥
कर विदूरित लोचन लालसा।
स्वर प्रसूत सुधा श्रुति को पिला।
गुण – मयी रसनेन्द्रिय को बना।
गृह गये अब दर्शक-वृंद भी॥४९॥
प्रथम थी स्वर की लहरी जहाँ।
पवन में अधिकाधिक गूँजती।
कल अलाप सुप्लावित था जहाँ।
अब वहाँ पर नीरवता हुई॥५०॥
विशद - चित्रपटी ब्रजभूमि की।
रहित आज हुई वर चित्र से।
छवि यहाँ पर अंकित जो हुई।
अहह लोप हुई सब - काल को॥५१॥