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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तदश सर्ग / पृष्ठ - १

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मन्दाक्रान्ता छन्द

ऊधो लौटे नगर मथुरा में कई मास बीते।
आये थे वे ब्रज-अवनि में दो दिनों के लिए ही।
आया कोई न फिर ब्रज में औ न गोपाल आये।
धीरे-धीरे निशि-दिन लगे बीतने व्यग्रता से॥1॥

बीते थोड़ा दिवस ब्रज में एक संवाद आया।
कन्याओं से निधन सुन के कंस का कृष्ण द्वारा।
नाना ग्रामों पुर नगर को फूँकता भू-कँपाता।
सारी सेना सहित मथुरा है जरासन्ध आता॥2॥

ए बातें ज्यों ब्रज-अवनि में हो गई व्यापमाना।
सारे प्राणी अति व्यथित हो, हो गये शोक-मग्न।
क्या होवेगा परम-प्रिय की आपदा क्यों टलेगी।
ऐसी होने प्रति-पल लगीं तर्कनायें उरों में॥3॥

जो होती थी गगन-तल में उत्थिता धूलि यों ही।
तो आशंका विवश बनते लोग थे बावले से।
जो टापें हो ध्वनित उठतीं घोटकों की कहीं भी।
तो होता है हृदय शतधा गोप-गोपांगना का॥4॥

धीरे-धीरे दुख-दिवस ए त्रास के साथ बीते।
लोगों द्वारा यह शुभ समाचार आया गृहों में।
सारी सेना निहत अरि की हो गई श्याम-हाथों।
प्राणों को ले मगध-पति हो भूरि उद्विग्न भागा॥5॥

बारी-बारी ब्रज-अवनि को कम्पमाना बना के।
बातें धावा-मगध-पति की सत्तरा-बार फैलीं।
आया संवाद ब्रज-महि में बार अट्ठार हीं जो।
टूटी आशा अखिल उससे नन्द-गोपादिकों की॥6॥

हा! हाथों से पकड़ अबकी बार ऊबा-कलेजा।
रोते-धोते यह दुखमयी बात जानी सबों ने।
उत्पातों से मगध-नृप के श्याम ने व्यग्र हो के।
त्यागा प्यारा-नगर मथुरा जा बसे द्वारिका में॥7॥

ज्यों होता है शरद त्रातु के बीतने से हताश।
स्वाती-सेवी अतिशय तृष्णावान प्रेमी पपीहा।
वैसे ही श्री कुँवर-वर के द्वारिका में पधारे।
छाई सारी ब्रज-अवनि में सर्वदेशी निराशा॥8॥

प्राणी आशा-कमल-पग को है नहीं त्याग पाता।
सो वीची सी लसित रहती जीवनांभोधि में है।
व्यापी भू के उर-तिमिर सी है जहाँ पै निराशा।
हैं आशा की मलिन किरणें ज्योति देती वहाँ भी॥9॥

आशा त्यागी न ब्रज-महि ने हो निराशामयी भी।
लाखों ऑंखें पथ कुँवर का आज भी देखती थीं।
मातायें थीं समधिक हुईं शोक दु:खादिकों की।
लोहू आता विकल-दृग में वारि के स्थान में था॥10॥

कोई प्राणी कब तक भला खिन्न होता रहेगा।
ढालेगा अश्रु कब तक क्यों थाम टूटा-कलेजा।
जी को मारे नखत गिन के ऊब के दग्ध होके।
कोई होगा बिरत कब लौं विश्व-व्यापी-सुखों से॥11॥

न्यारी-आभा निलय-किरणें सूर्य की औ शशी की।
ताराओं से खचित नभ की नीलिमा मेघ-माला।
पेड़ों की औ ललित-लतिका-वेलियों की छटायें।
कान्ता-क्रीड़ा सरित सर औ निर्झरों के जलों की॥12॥

मीठी-तानें 'मधुर-लहरें गान-वाद्यादिकों की।
प्यारी बोली विहग-कुल की बालकों की कलायें।
सारी-शोभा रुचिर-ऋतु की पर्व की उत्सवों की।
वैचित्रयों से बलित धारती विश्व की सम्पदायें॥13॥

संतप्तों का, प्रबल-दुख से दग्ध का, दृष्टि आना।
जो ऑंखों में कुटिल-जग का चित्र सा खींचते हैं।
आख्यानों से सहित सुखदा-सान्त्वना सज्जनों की।
संतानों की सहज ममता पेट-धंधे सहस्रों॥14॥

हैं प्राणी के हृदय-तल को फेरते मोह लेते।
धीरे-धीरे प्रबल-दुख का वेग भी हैं घटाते।
नाना भावों सहित अपनी व्यापिनी मुग्धता से।
वे हैं प्राय: व्यथित-उर की वेदनायें हटाते॥15॥

गोपी-गोपों जनक-जननी बालिका-बालकों के।
चित्तोन्मादी प्रबल-दुख का वेग भी काल पा के।
धीरे-धीरे बहुत बदला हो गया न्यून प्राय:।
तो भी व्यापी हृदय-तल में श्यामली मूर्ति ही थी॥16॥

वे गाते तो 'मधुर-स्वर से श्याम की कीर्ति गाते।
प्राय: चर्चा समय चलती बात थी श्याम ही की।
मानी जाती सुतिथि वह थीं पर्व औ उत्सवों की।
थीं लीलायें ललित जिनमें राधिका-कान्त ने की॥17॥

खो देने में विरह-जनिता वेदना किल्विषों के।
ला देने में व्यथित-उर में शान्ति भावानुकूल।
आशा दग्ध जनक-जननी चित्त के बोधने में।
की थी चेष्टा अधिक परमा-प्रेमिका राधिका ने॥18॥

चिन्ता-ग्रस्ता विरह-विधुरा भावना में निमग्ना।
जो थीं कौमार-व्रत-निरता बालिकायें अनेकों।
वे होती थीं बहु-उपकृता-नित्य श्री राधिका से।
घंटों आ के पग-कमल के पास वे बैठती थीं॥19॥

जो छा जाती गगन-तल के अंक में मेघ-माला।
जो केकी हो नटित करता केकिनी साथ क्रीड़ा।
प्राय: उत्कण्ठ बन रटता पी कहाँ जो पपीहा।
तो उन्मत्त-सदृश बन के बालिकायें अनेकों॥20॥