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प्रीति की प्यास लगै तन-मनमें / स्वामी सनातनदेव

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राग मुलतानी, तीन ताल 29.7.1974

प्रीति की प्यास लगै तन-मन में।
रहै न तन-मन की कोउ चिन्ता, सुमिरन हो छन-छन में॥
चढ़े रहें प्रीतम ही चित्तपै, लखूँ तिनहिं कन-कन में।
करों सदा उनही की सेवा, देखि-देखि जन-जन में॥1॥
अपनो अपने में न रहे कछु, सौंपि सभी चरनन में।
उनहिं त्यागि कछु चहों न कबहूँ, रहें वही चिन्तन में॥2॥
पल-पल रहै विकल यह मन, नित ललक लगै दरसन में।
रहै चित्त को और न सम्बल<ref>साधन, सहारा, सामग्री</ref> लग्यौ रहै चरनन में॥3॥
अपुनो जाय अपुनपो, केवल प्रीतम ही तो मन में।
प्रीति रहै, पै कबहुँ न भासै, लागै ललक लगन में॥4॥

शब्दार्थ
<references/>