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प्रीत के दो बोल / कुमार मुकुल

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मूसलाधार बारिश में कौन है

गड्ढ़े के चारों ओर

ऊँचा-खाला में

रुक-रुक चलती कमर तोड़

झुक-झुक बीनती जाती कुछ

बढ़ती जो झटके से

दूधिया वक्ष

झीने आँचल के घेरे से

उचक-उचक आता है

उसे ढाँपती देखती चारों ओर

सिहरन सी उठती मन में

उसके-तेरे भी

लो लो फिसल गई

देख ली तूने

केले के थंबों सी गोरी पुष्ट जंघाएँ

लो झुकी वह

साथ तेरी नज़र भी

मूरखा है बड़ी

रुकती है जाने क्यूँ

बार-बार झुकती है

इंतजार किसका है

बीनती है जाने क्या

तमकती किस पर है किस पर झल्लाती है

बेशर्म बड़ी है, कैसे खड़ी है !

लो चल दी मचलती

आँचल में भर लिया जाने क्या ?

गा भी रही है कुछ !

खिड़की से, नज़रों से दूर जा रही है


करिया मुसहर की

वह गोरी बेटी थी

चुनती थी घोंघे

काले, बदबूदार

खेलने को? नहीं खाने को

उबकाई आती है?

दूद्धी वक्ष

देख जिसे सिहरते थे

उसमें भी गंध है घोंघों की

रंभाफल के थंबों-सी गोरी पुष्ट जंघा में

माँस है घोंघों का, चूहों का

चेंगा मछली का

खुली आँखों सपने में देखती थी वह

दुलारे कनकिरवो (बच्चों) को

घोंघों का अधपका, सुस्वादु माँस खाते चाव से

उसे भी मज़ा आता था भीगने में मेह में

पर आनंदित करते थे पुष्ट भूरे घोंघे ही

झुकती थी जिन्हें चुनने को बार-बार

इंतज़ार था उसको भी !

किसी भंवरे का नहीं

मोटे, भारी से घोंघे का

देख जिसे

पिया का हिया हुलस लगा लेगा छाती से

तमकती थी टोले की छोकरियों पर

उससे भी पहले जो चुन चुकी थीं

अच्छे सोंधे घोंघे

झल्लाती थी उठी क्यों देर से

क्यों ऐसी गलती की ?

गाती थी प्रेमगीत

नहीं !

पेट भर खा

उसका शौहर जो बोलेगा

प्रीत के दो बोल

वही गुनगुनाती थी

उसी पे इठलाती थी

झूम-झूम जाती थी।