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प्रीत के रंग / मदन गोपाल लढा

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झूठ नहीं कहा गया है
कि प्रीत के
रंग होते है हज़ार।

उस वक़्तत की फ़िजाँ में
मैं सूंघता था
प्रीत की ख़ुशबू
रातों रास करता
सपनों के आंगन
हृदय रचता
एक इन्द्रधनुष।

बदले हुए वक़्त्त में
आज भी
मेरे सामने है
प्रीत के नए-निराले रंग
चित्र ज़रूर बदल गए हैं।

शायद
इस बेरंग होती दुनिया को
रंगीन देखने के लिए
ज़रूरी है
प्रीत रंगी आँखे।


मूल राजस्थानी से अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा