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प्रीत जहिया सजोर हो जाई / रमेशचन्द्र झा
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प्रीत जहिया सजोर हो जाई,
भाव मन के विभोर हो जाई!
दर्द के बाँसुरी बजाई के,
बोल बहरी कि सोर हो जाई!
हम सँवारब सनेह से सूरत,
रूप सुगनाक ठोर हो जाई!
रात भर नाचि के थकल जिनगी,
जाग जाई त भोर हो जाई!
पाँख आपन पसारि के जईसे
सनचिरैया चकोर हो जाई!
चोट खाई त मोम जइसन मन,
काठ अइसन कठोर हो जाई!
देख के रूप, रूप अनदेखल,
छोट चिनगी धंधोर हो जाई!
रूप का तीर के चुभन कसकी,
दाह दहकी त लोर हो जाई!
के निहोरा करी अन्हरिया के,
आँख झपकी अंजोर हो जाई!
के कहानी सुनी पिरितिया के,
हम सुनाइब त भोर हो जाई!