प्रेत कथा / विमल कुमार
मैं कैसे कर सकता हूँ
अलग वह साँस
जो अपनी साँस में मिला ली थी मैंने ।
वह रक्त
मैं कैसे अलग कर सकता हूँ
जो मेरे रक्त में मिल गया था
बिना ख़ून चढ़ाए
वह नींद जो समा गई थी
मेरी नींद में
वे सपने जो मेरे सपनों के भीतर
जमा हो गए थे
किसी अन्याय के विरोध में
कैसे कर सकता हूँ
अलग तुम्हारी छाया
अपनी छाया से
जो एकाकार हो गई थी
एक दिन रास्ते में
साथ चलते हुए ।
क्या चाँद को
अलग किया जा सकता है
कभी आसमान से ?
क्या नदी को
कभी उसके शहर से
तो फिर तुम क्यों कहती हो
मेरा तुम पर
नहीं है कोई
कॉपीराइट
यह क़िताब जो मैंने लिखी है
तुम्हारे साथ रिश्तों की धूप की
उसका एक-एक शब्द
जीया है मैंने तुम्हारे साथ
यह अलग बात है
तुम इन शब्दों से कोई रिश्ता
रखना नहीं चाहती ।
मैं भले ही तुमसे न मिलूँ
न लिखूँ ख़त
न ई० मेल करूँ
न तुम टेलीफ़ोन करो
पर तुम मुझसे अलग नहीं
हो सकती
मेरा प्रेत तुम्हारा पीछा
करता रहेगा
मेरे मरने के बाद
अदृश्य
इसी तरह
और मैं एक खंडहर में
अपने समय के
तुम्हारा इन्तज़ार करता
रहूँगा
जहाँ तुमने मिलने से
मना कर दिया है