भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेमक महिमा / गोविन्ददास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
आधक आध आध दिठि अंचल जब धरि पेखल कान।
कत शत कोटि-कुसुम जर-जर रहत कि जात परान।।
सजनी जानल बिहि मोर बाम।
दुहु लोचन भरि जे हरि हेरय तसु पद मोर परनाम।।
सुतअनि कहत कान्ह घनश्यामल मोहे बिजुरी सम लागि।
रसवति तकर परश रस भासत भर हृदय जनु आगि।
प्रेमवति प्रेम लागिजिउ तेजत चपल जिवन मोर साद।
गोविन्ददास भन श्रीवल्लभ जन रसवति-रस-मरजाद।।