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प्रेमदीप बन जाना / कविता भट्ट
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मन में तम के हैं स्पंदन
घृणा-द्वेष के हैं सहवास
भीतर तो जड़ता के बंधन
नित अहंकार के मोहपाश
अहं जलाना, मधुरता भरकर, प्रेमदीप बन जाना ।
गहन अँधेरे उस आँगन में
बाहर ही दीपक हैं जलते
मद के उस प्रकम्पन में
द्वेष-भाव भीतर हैं पलते
विषकन्या की बाँहे तजकर, मेरे स्वप्न सजाना ।
प्रत्येक दीपावली में तुमने
दीपक बहुत जलाए होंगे
काली अमावस में तुमने
ज्योतिकलश छलकाए होंगे
इस बार मुझे आलिंगन में ले, विरह-व्यथा हर जाना ।
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