प्रेमियों के घर नहीं होते / चित्रा पंवार
जब प्रेमी जोड़ा किसी कैफे या रेस्तराँ में बैठ कर बातें करता
लड़का टेबुल पर थोड़ा-सा झुककर लड़की के हाथों को
स्नेह या भरोसा देने की चाह से थाम लेता
अचानक आस पास बिखरी सैकड़ों आँखें
उन गुथे हुए हाथों की दरारों में आकर समा जाती
मानो जाम हुए ताले को खोलने के लिए
मैदान में आ डटे हो सैकड़ों चाबी के गुच्छे
पार्क की एकान्तता में जब प्रेमिका प्रेमी के कंधे पर सिर रखकर आंखें मूँद लेती
पल भर में ही वह शांत स्थान भीड़ के शोर से भर जाता
लड़की रुआसी हो उठती
क्या ऐसी कोई जगह नहीं
जहाँ हम मिल सके?
मैं तुम्हारे लिए एक बड़ा-सा खूबसूरत घर बनाऊँगा
लड़का उसके आंसू पोंछते हुए कहता
बस तुम रोया न करो!
फिर दोनों के होंठों पर मुस्कुराहट तैर जाती
अब दिन इसी उम्मीद में गुजरने लगे
हमारा घर होगा जहाँ हम मिलेंगे
अब मिलते भी तो घर की ही बात होती
घर का डिजाइन, कमरे, हाल, दरवाजे, खिड़कियाँ
,रंग रोगन सब कुछ लड़के की पसन्द का होता
मगर रसोई;
वो तो मेरी पसन्द की ही होगी
"अच्छा बाबा ठीक है"
लड़का सहर्ष मान जाता
अब उनके लिए प्रेम से बड़ा घर का स्वप्न था
जानते थे
घर के होने से ही सम्भव है प्रेम का होना
मगर जो नहीं जानते थे वह दोनों
वो ये
की प्रेमियों के घर नहीं होते!
उनकी किस्मत में
घर की जगह लिखी जाती हैं रेल की पटरियाँ
जहाँ रह सकते हैं वह टुकड़ों में बिखरकर
या फिर स्याह लाल धब्बों में दर्ज
कोई गुमनाम कहानी बनकर
तैरते ख्वाबों की जगह लिखे जाते हैं नदी नाले
जहाँ अटके मिलते हैं मुर्दा ख्वाब
किनारे के झाड़ में लावारिस लाश बनकर
घर बसाने का आशीर्वाद देने वाले हाथ
दबा देते हैं किसी घुप्प अँधेरी रात में
धीरे से उनका गला
छटपटा कर दम तोड़ देते हैं
सोई हुई आंखों में घर के जागे से ख़्वाब
घर बनाने और बसाने का ख़्वाब देखने वाले
लटके मिलते हैं किसी सुबह
पेड़ की टहनी या छत के पंखे से
या फिर हो जाते हैं एक रोज
लजीज भोजन में छिपे धोखे का शिकार
जो बचे खुचे प्रेमी बगावती होकर बसा लेते हैं अपना घर
उनके लिए बन्द हो जाते हैं घर के दरवाजे
हमेशा–हमेशा के लिए
क्योंकि प्रेमियों के घर नहीं होते॥