प्रेमी कै जातना / उमेश चौहान
सुरज बैठे रोजु बाढ़ै
जियरा मां धुकधुकी,
तनिकु-तनिकु अँधेरु फैलै,
हिरदय मां हुलास जागै,
अँधेरिया पाख मां औरउ ज्यादा,
गांव के गोइंड़हरे पर
बेरवन के झुरमुट मां
काली-काली छांही मां द्याह ढ़ाँकि
बैठि रोजु राह ताकै
गाँव का चित-चोर बाँका।
साँवरी सँवरि निकरै
धीरे-धीरे देहरी ते
लोटिया दाबि हाथे मां,
रस्ता मां लपकि लेय
मिलै का मनमोहना ते,
लिपटि जाय,
सिमटि जाय,
जैसे ब्लैक होल मां
ब्रह्माण्ड सबै मिटि जाय,
पुरवा कै झकोर झूमै,
नाचै मन-मोर लागै,
सांसन कै डोर भागै,
करेजेन मां प्यास जागै,
ना बुझाय, कबहूँ ना बुझाय,
केतनौ मिलैं पर ना बुझाय।
अंधकार मिलवावै,
उजियारा बिलगावै,
समय कै चिरैया उड़ै
उम्मीदन के पंख धारि,
मन के क्षितिज मां वह
रोजु खूब रसु घ्वारै,
प्रेम-धनु सतरंग ब्वारै,
धरती-अकासु ज्वारै,
यही तना जमै रोजु
सुखु-दुखु कै खट-मिट्ठी जुगुलबंदी।
याक दिन फिरि आही गवै
वोहू घरी,
साँवरी सजि डोली चढ़ी,
नैहर कै पीर पगी,
रोवति बेजार चली,
सहसा मुसकाय उठी,
आँखीं जब चारि मिलीं,
गाँव के किनारे खड़े
प्रेमी का निहारै लागि
रोकि अपने अँसुवन का,
फिरि एकदमै सकुचाय गवै,
देखि कै घर वालेन का
बहुतै शरमाय गवै,
आँखिन मां आँखी डारे
विदा होइगै राति कै रानी,
अँखियां होइ गईं पानी-पानी,
लैगे कहार
कहूँ नदिया के पार,
सूनु भा प्रेमी का संसार,
खाय वहु बनि चकोर अंगार,
बैठिकै नित बेरवन कै छाँव,
भेदु तनिकौ ना जानै गाँव,
भरे निज आँखिन मां अँधेरु,
लादि मन दुक्खन का सुमेरु,
सुरज बैठे बाढ़ै लागै प्रेमी कै जातना।