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प्रेम, प्रान, गंध, गान प्रकाश आ पुलक बनके / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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प्रेम, प्राण
गंध, गान
प्रकाश आ पुलक बनके
धरती-आसमान के
सराबोर करत
तहरा कृपा के अमृत
लगातार झर रहल बा।
अइसन झर रहल बा
कि दिग् दिगंत के
सब टूट गइल बा।
दिशा-दिशा से
आनंद के तरंग बनके
उमड़ चलल बा कृपामृत।
हमार समग्र जीवन
एह सुधा सागर में
सराबोर होके
निहाल हो उठल बा।
हमार चेतना, हमार प्रान
कल्याणमयी-भावना के
रसधार में
नहा-नहा के
हरखित हो रहल बा।
परमानंद में पागल होके
कमल फूल जइसन फूट रहल बा
खिलखिला के हँस रहल बा।।
आपन समस्त मधु पराग
तहरा चरनन में चढ़ा के
अगरा रहल बा।
हमरा हृदय में
तहार अलौकिक आलोक
जाग गइल बा।
अलसाइल आँखन पर से
परदा हट गइल बा
उषा काल के लाली
सूर्योदय के सूचना दे चुकल।।