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प्रेम-ग / अनिल पुष्कर

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वो ख़्वाबों के पर गिनती है
और हर बार कुछ पंख टूटकर गिरते हैं ज़मीन पर
हर बार कुछ रंग उड़ान से कम हो जाते हैं
कुछ संकल्प पलस्तर से उखड़ते
कुछ कल्पनाएँ बेतरतीब बिखरती
कुछ चुनिन्दा नींद के बादल घटते अम्बर में धुँधलका बढ़ता है

और वो फिर नई उत्तेजना, रोमांच के साथ
भरती है उड़ान
कि कहीं तो होगा वो आकाश
जहाँ पंख टूटने का खतरा उसे अब नहीं डराएगा
जहाँ सपनों में जीते हुए वो कई सदियाँ फलांग जाएगी
जहाँ रंगीन दरिया में वो देर तक आकण्ठ डूबी रहेगी ।

मगर इस ज़मीन में एक सुरंग खुलते ही
फिर किसी अनचाहे ख़ौफ़ का पर्दा उसे ढक लेता है
और वो फिर किसी सुबह की एक सुर्खी के लिए लड़ती है
उसे वो लालिमा चाहिए जिसे आँखों की कोर में भरे
जन्नत की सैर पर निकले
तो कोई अफ़सोस उसका पीछा न कर सके....