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प्रेम-पन्थ में परै वही जो रखै न सिर को मोह / स्वामी सनातनदेव

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व्रज-रसिया, तीन ताल

प्रेम-पन्थ परै वही जो रखै न सिर को मोह।
रखै न सिर को मोह तजै जो जगमें सबसों द्रोह॥
राग-द्वेष दोउनकों त्यागे।
सदा एक प्रिय में अनुरागै।
प्रियतम ही की रति उर जागै।
जागे प्रियतम की रति मन में होय न कबहूँ छोह<ref>उत्तेजना, क्षोभ</ref>॥1॥
प्रिय विनु अपनो कोउ न लागै।
तन-मन हूँ की ममता त्यागै।
भुक्ति-मुक्ति दोउ खारी लागै।
खारो लागै भुक्ति-मुक्ति रस हूँ को होय न मोह॥2॥
मोह करो वा अति अनन्यता।
निजता कहा, कहो वा ममता।
होय एक बस प्रियतम-परता।
प्रियतम तजि प्रियता के रस हूँ को उर होय न छो॥3॥
ऐसो प्रेम हिये जब जागै।
प्रियतजि कहूँ न फिर मन लागै।
रति-रसमें ही मति अति पागै।
रहै न अपने में अपनो कछु, होय प्रीति सन्दोह<ref>सघनता</ref>॥4॥

शब्दार्थ
<references/>