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प्रेम-परख - 2 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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रंग लाती हुई जहाँ पर है,
है वहाँ एकता-निवास कहाँ;
गाँस की फाँस है अगर जी में,
तो रही प्रेम में मिठास कहाँ?
जो नहीं है सनेह से चिकनी,
जो न उसमें हृदय-विकास मिले;
आग लग जाय तो लुनाई में,
धूल में बात की मिठास मिले।
चाह-विष-बेलि जब बला लाई,
क्यों न तब सूख त्याग-तरु जाता;
पास समता-विचार-पादप के
प्रेम-पौधा पनप नहीं पाता।
क्यों न अनुराग तो सहे ऑंचें
क्यों न तो पूत प्रीति रुचि जलतीं;
तो न उठतीं बिराग-लपटें क्यों,
लाग की आग है अगर बलती।
तो न चाहें, अगर न जी चाहे,
क्यों लगे आँख, जो लगे न लगन;
प्रेम से आँख जो चुराना है,
चित चुराती रहे न तो चितवन।