प्रेम-पिआसे नैन / भाग 3 / चेतन दुबे 'अनिल'
संयम के घट फोड़कर, छोड़ नेह की आस।
जंगल- जंगल भटकती, पीड़ित पागल प्यास।।
सपना टूटा आँख में, उठी हृदय में पीर।
लावारिस आँसू मिले, प्रणय- सिन्धु के तीर।।
आशा, आँसू, आस्था, सपने औ विश्वास।
सबके सब करने लगे, अब मेरा उपहास।।
मुस्कानों में जब लगे, आँसू के पैबन्द।
तब से ही मन हो गया, प्रिये! गीत गोविन्द ।।
सुमुखि! तुम्हारा प्यार पा, उर में उठे हिलोर।
आती तेरी याद जब, नाच उठे मन - मोर।
तू मृगनैैनी है मेरी, सभी गुणों की खान।
इसीलिए तो हो गया, मैं तुझ पर कुर्बान।
जगने से सोने तलक, कभी न भूले याद।
सजनी ! तेरे प्यार का, अजब अनोखा स्वाद।
जब पुल टूटे धीर के, बढ़ी हृदय की पीर।
अन्तर्मन को आग दे, बहे दृगों से नीर।।
कसमें दे-दे यों कसी, पाँवों में जंजीर।
तन में, मन में, प्राण में, बसी पीर - ही-पीर।।
आशाओं की आँख में, चुभे काल की कील।
अब मत ऊँची टाँगिए, सपनों की कंदील।।