प्रेम-पिआसे नैन / भाग 7 / चेतन दुबे 'अनिल'
अपने अश्कों से लिखा, सुमुखि! तुम्हारा नाम।
फिर भी आँसू हो गए, जग भर में बदनाम।।
मुझको जीवन भर रहा, मधुरे! तेरा ध्यान ।
फिर भी उर की पीर का, हुआ न कहीं निदान।।
मन की आशा हो गई, तव चरणों की दास।
मन मेरा रहता सदा, सुमुखि तुम्हारे पास।।
चार दृगों में हो गई, कुछ ऐसी तकरार।
बाहर-बाहर बैर है, भीतर-भीतर प्यार।।
अम्बर में घन हैं घिरे, बदल गया परिवेश।
मेरे मन को यों लगा, खोले तुमने केश।।
प्रिय! अधरों तक आगई, उर में जलती आग।
सावन में मत गाइए, सुमुखि ! रागमय फाग।।
विरह अग्नि में जल गया, मृदु सपना सुकुमार।
उस पर बेकल प्राण को, मार रहा है मार।।
जो होना था हो गया, मृदु सपनों का अन्त।
अब चाहे पतझर झरे, अथवा आय बसंत।।
प्राण! प्राण! रटते हुए, बीत गई सब रैन।
फिर भी आकुल प्राण को, मिला न पल भर चैन।।
तुम हो मेरी प्रेरणा! तुम ही मेरी प्राण!
हे कल्याणी! दो मुझे दुख-दर्दों से त्राण।।