भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेम-पिआसे नैन / भाग 8 / चेतन दुबे 'अनिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम ही मेरी मीत हो, तुम ही मेरी जीत।
तब क्यों होती हो प्रिये! दुनिया से भयभीत।।

मैं रहता हूँ देहली, तुम रहती अजमेर।
फिर भी मिलने में प्रिये! व्यर्थ न करना देर।।

मन-मयूर नर्तन करे, पीड़ाओं के गाँव ।
झिलमिल पंख न देखिए, देखो उसके पाँव।।

पावस में पाती लिखी, भेजी पिय के गाँव।
प्रीतम जल्दी आइयो, रची महावर पाँव।।

पाती में पिय ने लिखा, अपने मन का मैल।
चन्द्रवदनि ! मृगलोचनी ! भोली घर की गैल।।

आज तुम्हारे हाथ से, मिला प्यार का फूल।
जिसके आगे लग रही, सारी दुनिया धूल ।।

आँखों में आँसू भरे, अधरों पर मुस्कान।
समय-बधिक ने छेड़ दी, जाने कैसी तान।।

मेरे मन की मेनके, मन मत करो उदास ।
फिर मिलने हम आयँगे, कभी तुम्हारे पास।।

मेरे उर की उर्वशी! खोलो उर के द्वार।
भटक रहा है राह में, कब से पीड़ित प्यार।।

जब से तेरे प्यार की, मिली प्रीतिमय छाँह।
मेरी ख्वाजा हो तुम्हीं, रहती हो दिल माँह।।