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प्रेम-भरी कातरता कान्ह की प्रगट होत / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
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प्रेम-भरी कातरता कान्ह की प्रगट होत,
ऊधव अवाइ रहे ज्ञान-ध्यान सरके ।
कहै रतनाकर धरा कौं धीर धूरि भयौ,
भूरि भीति भारनि फनिंद-फन करके ॥
सुर सुर-राज सुद्ध-स्वारथ-सुभाव सने,
संसय समाये धाए धाम विधि हर के ।
आइ फिरि ओप ठास-ठाम ब्रज-गामनि के,
बिरहिनि बामनि के बाम अंग फरके ॥13॥