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प्रेम अगोचर / मृत्युंजय कुमार सिंह
Kavita Kosh से
चाँदनी की उड़ती
झीनी चादर
जब सोख लेती है
गर्म दिन पर फैले
स्वेद का खारापन,
मीठी मिश्री की डली
तुम्हारा प्रणय
भर जाता है रोम-रोम
ठंडे ज्वर से
कंपकंपाती धमनियों में
थरथराता उतरता है
तुम्हारे छुवन का एहसास
शोध को उतावले
अंग-प्रत्यंग
जकड़ हो जाते जब एकमेक
लपलपाती जीभ काढ़े
भर जाता है लालसा का व्योम
प्रेम-लीला में पगा
जीव
ऊब में ढल
वितृष्णा के अम्ल में गल
जब होने लगता विकार-सा
अवतरित होता है तब
अमूर्त, अगोचर प्रेम की
अनहद ध्वनि-सा गूँजता
ॐ...