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प्रेम अपने अर्थ से परे / आलोक श्रीवास्तव-२

ये प्रेम की कैसी स्मृतियाँ हैं ?
जिसमें कामना नहीं
विरह नहीं
सिर्फ़ हवाओं में उड़ता
एक आंचल है
एक नदी का जल-स्वर
मेघों से घिरी एक शाम
उदासी के अनंत कुहासे को चीरकर
क्षितिज से फूटते
इंद्रधनुषी रंग हैं ?

यहां जीवन की
असंख्य प्रेरणायें हैं
शक्ति के अनगिनत रूप
तुम नहीं हो
इन स्मृतियों में
सिर्फ़
तुम्हारा कोई इशारा है

दर्द की बहुत गहरी तहों से
उठती
एक भावना है
निरंतर ताक़तवर होती

एक संबंध है
इतिहास का सार-तत्व बन जाता
इंसान होने के मानी बताता

प्रेम अपने अर्थ से परे
भावना से दूर
जीवन की अछूती गहराईयों में
तब्दील होता ।