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प्रेम आया था एक दिन / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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प्रेम आया था एक दिन
तरुण अवस्था में
निर्झर के प्रलाप कल्लोल में,
अज्ञात शिखर से
सहसा मिस्मय को साथ ले
भू्र भ्ंागित पाषाण के निश्चल निर्देश को
लाँघकर उच्छल परिहास से,
पवन को कर धैर्यच्युत,
परिचय धारा में तरंगित कर अपरिचत की
अचिन्त्य रहस्य भाषा को,
चारों ओर स्थिर है जो कुछ भी
परिमित नित्य प्रत्याशित
उसी में मुक्त कर
धावमान विद्रोह की धारा को।

आज वही प्रेम स्निग्ध सान्त्वना की स्तब्धता में
नीरव निःशब्द हो पड़ा है प्रच्छन्न गंभरता में।
चारों ओर निखिल की विशाल शान्ति में
मिला है जो सहज मिलन में,
तपस्विनी रजनी के नक्षत्र आलोक में उसका आलोक है,
पूजा रत अरण्य के पुष्पार्ध्य में उसकी है माधुरी।

‘उदयन’
मध्याह्न: 30 जनवरी, 1941