भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेम और क्रान्ति / संजय शेफर्ड

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(!)
एक उदास लम्हें को स्मृतियों में कसते हुए
उस दिन मैंने रख दिया था
तुम्हारे भीगे होंठो पर एक चुम्बन
मणिकर्णिका की आग दहक उठी थी, बिलकुल वैसे ही जैसे
आत्मा खो चुकी देह की दहक से चिता जलती है
किसी शान्त सोई हुई नदी के मुहाने पर
...और फिर शान्त हो गई थी लम्बे वक्त के लिए

पूरब-पश्चिम, पश्चिम-पूरब का कोई अर्थ नहीं रह गया था
मेरे सामने कोई चेहरा नहीं, महज़ गिनतियां थी
महज़ कुछ अखबार के पन्ने, महज़ कुछ इतिहास की किताबें
जिसमें बड़े- बड़े समयकाल दर्ज थे पर लम्हें - दिन महिने गायब
रूस की क्रान्ति का साल याद है मुझे
फ्रांसीसी क्रांति, अमेरिकी क्रांति, बोल्शेविक क्रांति, चीनी ज़िन्हाई क्रांति का भी
पर कोई तारिख और चेहरा नहीं
बस गिनतियां हैं मरे लोगों की मेरे इर्द-गिर्द, बस गिनतियां, बस गिनतियां

दरअसल, हमारा इतिहास मुस्तकबिल को नहीं माज़ी को दर्ज करता है


(!!)
शायद इसीलिए मेरे हाल पर माज़ी की झीनी चूनर चढ़ रही है
मेरी आंखों में तैरने लगी हैं राजा हरिश्चंद की दन्तकथाएं
मरघट पर राजा, मरा हुआ राजकुमार, बिकी हुई औरत की याचनाएं
क्या हूं मैं ? कौन हूं मैं ? क्यों हूं मैं ?
एक पुरुष की आवाज में
एक स्त्री के बंद पड़े कानों में कोई जोर-जोर से चिल्लाता है
आग परस्पर बढ़ती जाती है
...और फिर शान्त हो जाती है लम्बे वक्त के लिए

सच कहूं तो आजकल विद्रोहों को भी आराम चाहिए
क्रांतियों को भी भरपूर नींद
पर घटनाएं जागती रहती हैं, इसीलिए इजिप्ट की क्रान्ति सिर्फ इजिप्ट तक नहीं रहते हुए
अरब की क्रान्ति बन जाती है
एशिया, अफ्रीका, उत्तर अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, अंटार्कटिका,
यूरोप से होकर आस्ट्रेलिया तक पहुंच जाती है
गीता, कुरान, बाइबिल, गुरु ग्रंथ साहिब के तत्व एकाकार होने लगते हैं
लहू, मौत और चीखें - तीनों लोकों तक पहुंचते हैं
सच कहता हूं, धर्म सिर्फ किदवंती नहीं होते और ना ही प्रेम सिर्फ प्रेम

देह होती है, और देह के ही मध्य कहीं होता है प्रेम और क्रान्ति भी


(!!!)
कभी- कभी सोचता हूं कि सचमुच मैं कितना उदास प्रेमी हूं
जो अपनी प्रेमिका के होंठों पर पराग देखने की बजाय
मणिकर्णिका की दहक देखता हूं
उसकी पीठ पर सृजन की बजाय एशिया का विध्वंस देखता हूं
जांघों और वक्षों पर यूरोपीय संस्कृति का अंश देखता हूं
और फिर निढ़ाल हो खो जाता हूं,
एक लम्बे वक्त के ऐतिहासिक समीकरणों के बीच ही कहीं उसके बगलों से झांकते हुए

हां, सचमुच अक्सर खोता ही रहता हूं
वरुणा और असी से उठकर
कभी अमेजन, कभी नील, कभी गंगा, कभी वोल्गा, कभी मेकांक,
कभी सेपिक, कभी जम्बेजी की पवित्र गहराइयों में
वसुधैव कटुम्बकम् की भावना के साथ
किसी अजनबी के शान्त, स्थिर होंठो पर
एक ऐसी दुआ का स्वर बन जो कभी भी पूरी नहीं होती

और मेरी प्रेमिका के होंठ ज्वालामुखी की दहक के बावजूद आखिरकार शान्त हो जाते हैं।