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प्रेम और विचारणा / संजीव कुमार

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धूल भरे मैदान में फैली धूप
किसी अंतहीन प्रतीक्षा का उजला रूप है,
दोपहर की खामोशी की तरंगें
पेड़ों की शाखाओं तक उठकर
रास्तों पर गिर पड़ती हैं
ठिठके हुए पदचिन्हों की
स्तब्धता का बयान
अक्षरों की आकृति ग्रहण करता है,
थके हुए मन प्रेम करना चाहते हैं
भला क्यों करना चाहते हैं प्रेम
जबकि व्याख्याएं ग्रहण कर चुकी हैं पूर्णता!
 
पूर्णता की तप्त धूप
सोख चुकी है मानस तरंगों की शीतलता
अक्षरों के सांचे सहेजने में असमर्थ हैं
इंगितों की अनपेक्षित आकृतियों को,
अर्थवान होता प्रेम यदि किया जाता
ऐसे समय में जब करने को नहीं था कुछ भी,
खाली थे मैदान, सूनी थी दोपहर और
जनपद व्यस्त था रोजमर्रा के कामकाज में।
 
धीरे धीरे ढला दिन
धीरे धीरे थमा शोर पदचापों का
धीरे धीरे आ घिरी संध्या
धीरे धीरे लौटी गर्द आसमान से
उठ गई थी जो उत्तेजक बयानों की भाप से,
उदास होता प्रेम यदि किया जाता
ऐसे समय में जब गतिशीलता का महज भ्रम
लौटा रहा है कदमों को, दिमागों में
हिसाब और आकुलता का बोझ है और
अंतहीन विस्तार भरा है उलझन और थकान से।
 
धूल भरे मैदानों में
जब भी किया जाता है प्रेम
जल्द चुक जाता है,
असफलता की हर कहानी को यद्यपि
ढंक लिया है
विस्मृति, सहमति और अवसाद की गर्द ने,
सहमे हुए मन कैद हैं तदपि
छिटके हुए अक्षरों के सांचों में,
पहले ही चेता चुके थे सख्त लहजों के बयान,
कठिन होता प्रेम यदि किया जाता
ऐसे समय में, जब हो रहा है
तर्क और विचारों का आदान प्रदान,
बहस जारी है?
व्यस्त है मानवता
प्रगति, विकास और ऊहापोह में।
 
अब जबकि तारे आसमान पर हैं और
थकी हुई लालसाएं जमीन पर
ठण्डक का कर रही हैं आगाज,
 रात का साया सहला रहा है
तप्त कामनाओं को,
आपाधापी भरी अस्तव्यस्त गणनाएँ भी शांत हैं,
गहन होता प्रेम यदि किया जाता
ऐसे समय में जब ज्वार बढ़ चुका है
हद तोड़ने के लिए,
हट रही हैं बाधाएँ स्वतः,
सोने जा रही हैं शंकाएं और अविश्वास
टपकने लगी है चांदनी आकाश से।
 
हर कोई करना चाह रहा है प्रेम,
हर किसी के मन में भरी है प्रतीक्षा,
कल्पनाएं विचारों को परे हटाकर,
टोह ले रही हैं शोर भरे मैदानों में
पदचापों के संगीत की,
उन्हें डर है कि कहीं उनकी प्रतीक्षा ही
आगे बढ़कर टोक न दे आगंतुक पगध्वनि को,
सफल होता प्रेम यदि किया जाता
ऐसे समय में, जब मन की सतह पर
मुद्रित नहीं थे विचार, प्रेरणा और
ताजातरीन समय के अखबार।