प्रेम कविताएँ - 10 / मंजरी श्रीवास्तव
मैं इन्द्रधनुषी रेशों से हरपल बुनती रहती हूँ तुम्हें
तुम्हारे हृदय की गहराइयों में टाँक आई हूँ अपनी आँखें
जो देख सकती हैं तुम्हारे मन के अदृश्य कोनों को भी
ताक-झाँक कर सकती हैं दृश्य और अदृश्य के बीच एक धागे भर के फ़ासले के दरम्यान
कई बार अपने सन्देह की छाया में भी लपेट कर रखती रही हूँ तुम्हें
जो ज़िन्दगी और रोशनी की सुबह जैसी है ।
तुमने भी बख़्शा मुझे मधुर प्यार
लेकिन तुमने अपने वजूद में न जाने कहाँ से शामिल कर ली थी
क्रोध की भट्ठी में से दग्ध करनेवाली आग
अज्ञान के मरुस्थल से गर्म हवा
स्वार्थ के किनारों से तेज़ काटनेवाली रेत
युगों के पाँव तले से खुरदुरी मिट्टी
और रचा अपना ही प्रतिद्वन्दी एक दम्भी पुरुष
जिसका प्रेम और माधुर्य जैसे शब्द से दूर-दूर तक कोई वास्ता न था ।
जो एक ऐसी अन्धी शक्ति से भरपूर था जो प्रचण्ड थी और लगातार खींचती चली गई तुम्हें
पाग़लपन की ओर
और सन्तुष्ट हुई तब जाकर अन्ततः
जब सन्तुष्ट हुई तुम्हारी कामना
और तुष्ट हुआ तुम्हारा दम्भ...तुम्हारा अहम्
तुमने छिन्न-भिन्न कर दिए वे इन्द्रधनुषी रेशे
फोड़ डालीं प्रेम से परिपूर्ण मेरी आँखें
और हमारा मधुर प्यार
सांसारिक सन्तोष की पहली निःश्वास के साथ ही साथ छोड़ गया
दम तोड़ गया ।