प्रेम कविताएँ - 1 / मंजरी श्रीवास्तव
प्रेम ने अपनी जादुई किरणों से मेरी आँखें खोलीं और
अपनी जोशीली उँगलियों से मेरी रूह को छुआ
तब....जब उठ गया था प्रेम या प्रेम जैसे किसी शब्द पर से मेरा विश्वास
प्रेम ने दुबारा मेरी ज़िन्दगी के अनसुलझे रहस्यों को खोलने का सिलसिला शुरू किया
फिर से उन अनोखे पलों को जीना सिखाने की कोशिश करने लगा
जिसमें शामिल हो मेरा पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा और न जाने कई-कई बार किया गया प्यार
जिसकी यादें मन की गहरी भावनाओं को धुँधलके और कड़वाहट से भर देती हैं और बावजूद इसके
ख़ुशी दे जाती हैं छटाँक-भर ।
वो यादें
अब भी मेरी रातों के सन्नाटे को संगीत से भर देती हैं और एकान्त को
ख़ुशी के पलों में बदल देती हैं
वो सारे के सारे प्रेम एक-एक कर अब भी अपने पपड़ाए होंठों से फुसफुसाते रहते हैं मेरे कानों में
और स्वर्ग के आदम-से, मेरे अर्द्धविराम और शून्य युक्त जीवन में
खड़ी करते रहते हैं गहन अँधेरों के बीच रोशनी की मीनारें भी
ये रहस्यमयी और चमत्कारी मीनारें
समझाती रहती हैं मुझे गाहे-बगाहे जीवन के अर्थ
यादों के फड़फड़ाते हुए अदृश्य पंख
हवा करते हैं मेरे प्रेम की क़ब्र पर
और सोख लेते हैं उस क़ब्र पर गिरते मेरे आँसू
उसके होने के गवाह हैं
ये पंख...ये मीनारें...ये क़ब्र और मेरी आँखों से गिरते शबनम के क़तरे ।
क़ब्र की निगरानी करता हुआ मातमी सन्नाटा
और मेरे दिल से निकलती दर्द भरी ज़िन्दा आहें
क़ब्र के भेदों को बेशक़ न खोल पाती हों...
पर, अब भी मेरे बदन में लिपटी...मेरा ख़ून चूसती प्रेम की शाखाओं और
प्रेम से हुई मौत की कहानी बयान करती हैं ।
उम्मीदें दफ़न हैं उस जगह मेरी
वहीं सूखे हैं मेरे आँसू
खुशियाँ भी वहीँ लुटी हैं मेरी
मुस्कुराना भी वहीं भूली मैं
जहाँ सबसे ज़्यादा प्रेम था ।
प्रेम की उसी क़ब्र के सिरहाने खड़े दरख़्तों के पास ज़मींदोज़ है मेरा ग़म और उसकी यादें
दरख़्तों के पत्ते उसे याद कर काँपते हैं
बर्फ़ीली तूफ़ानी हवाएँ शोर मचाती हैं भटकती रूहों-सी और
नृत्य करती हैं मातम का ।