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प्रेम कविताएँ - 2 / मंजरी श्रीवास्तव

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प्रेम जैसे किसी शब्द में अविश्वास के बावजूद
हर पल एक दस्तक होती रहती है मेरे दिल पर
और रोशन रहता है उसका कोना-कोना

किसी की मासूम सरगोशियों की गवाह
जादू से भरी शानदार वादियाँ
मायूसी का जाल तोड़कर
और निखर-निखर जाती हैं...
उस दस्तक को सुनकर
उन रोशनियों में नहाकर

सलेटी आसमान-सा सिकुड़कर
बार-बार धक् से रह जाता है मेरा दिल
हवा से काँपता भी है
उसके थपेड़े भी सहता है
मेरी रूह कई-कई बार ख़ाली भी हो जाती है...
ज़िन्दगी की किताब कोरी रह जाती है
धरती की तरह मैं आसमान के सामने अपने सब राज़ खोल देती हूँ
और इस राज़ के खुलते ही
न जाने कब अनायास प्रेम
झरने में भीगी किसी जलपरी-सा
उपस्थित होता है मेरे सामने
जो अपनी नर्म त्वचा को
सूरज की किरणों-सी मेरी तपिश में सुखा रहा हो
और मैं उस परिन्दे की तरह उसकी तरफ़ फिर-फिर खिंचती चली जाती हूँ
जो तूफ़ान से पहले सहज भाव से अपने घोंसले की ओर जाता है.
जैसे कोई अजनबी आतुर भाव से अपने देश की ओर जाता है और
अपने देशवासियों को दूसरे देश की अतीत की कहानियाँ सुनाता है ।

उस परी में
उस परिन्दे में
उस अजनबी में
मैं अपने प्रेम की समस्या का समाधान लगातार तलाश कर रही हूँ ।